Credits
PERFORMING ARTISTS
UDAY
Performer
COMPOSITION & LYRICS
UDAY
Lyrics
Karan Kanchan
Composer
Lyrics
ये दुनिया तो अजीब ही शुरू से
काफ़ियों को यहाँ जीने की ना वजह दी
सोचे भी ना ज़रा भी (ज़रा भी)
कोई भी कुछ करने से पहले बस सोचे दूसरे की सज़ा की
मेरे पापों के साथ कला का घड़ा भी
जब चोट पड़ी किसी को तो श्राप दे वो दूसरे को karma की
मगर इस हिसाब से तो जिसे चोट लगी
असल में क्या भारी उसका karma नहीं?
क्यूँ? यहाँ बे-ख़बर ही बे-ख़बर को जाने, वो भी डर से रहता दूर
मैं भागा अपने घर से, मेरा घर तो बन चुकी थी बस अब तू
बस देखूँ चारों तरफ़ ही हर जगह, बस मैं बोलूँ, "क्या ही खूब!" क्यूँ?
क्यूँकि दुनिया सारी नासमझ, ये दुनिया सारी नासमझ
ये दुनिया सारी नासमझ, ये दुनिया सारी नासमझ
ये दुनिया सारी नासमझ
ये दुनिया सारी नासमझ, ये दुनिया सारी नासमझ
मैं कोशिशें भी करी, तो भी कोई यहाँ पाता मुझको ना समझ
यहाँ नासमझ भी ना समझ के बोले सबको "नासमझ"
मैं भी आता दुनिया में, तो मैं भी ठहरा नासमझ
क्या तुम थोड़ी दुनिया को समझते हो?
थोड़े भटकते, वहीं थोड़े से बदलते लोग
कुछ वादे तोड़े, हर क़दम पर ये क़सम के चोर
और कुछ बस थक गए और सो गए हैं कब के वो
उठते ही सुनने मिली दस बातें
पहले जैसा लगता नहीं, तो मुझे लगी सच बात है
दिनों में मैं रहता बंद था, पहले भी बस अब सारे
दिन मुझे दिखते ही नहीं है, ख़ाली बस रातें, बस रातें
कुछ पूछे मुझे कि "अब आज कल आप क्यूँ नहीं रोते?"
जब पीछे देखूँ सारी वजहें भी दूर ही हो गए
सुबह होने से पहले ही हूँ मैं सो जाता
तो कैसे हो सवेरा, कैसे होने वाला सूर्योदय?
अब ख़ुद से बैठा जुदा मैं
सोचूँ क्या मैं सुला के, अब ख़ुद आके कर सकूँ खुद से सुलह मैं?
पर कैसे ख़ुद की बातें भुला के
मैं ख़ुदा से भी पूछूँ, क्या तू ख़ुदा है या ख़ुदा का भी ख़ुदा एक?
मैं रुका वहीं, आए नहीं तुम
हम रोशनी के आगे, मगर साये रहे गुम
जो diary मैं भरता था वो diary भी चुप
वो शायरी है ख़ुश कैसे, जब शायर ही नहीं ख़ुश?
मेरी नाराज़गी जब तुमसे तब तुम ख़फ़ा होती
क्या तुम भी नासमझ या आख़िर मुझे सज़ा दोगी?
फिर सोचूँ सज़ा होगी सपने सारे बिखरेंगे
पर सपने पूरे हो गए तो जीने की क्या वजह होगी?
चोट पुरानी, फिर से आज लगती नई
जीत ना मिले पर वो हार तक ही सही
वो जिससे करती प्यार, वो उससे करता नहीं
और वो करे जिससे, वो प्यार करती नहीं (नहीं, नहीं)
ज़िंदा उठा दे जो वो नींद नहीं होती
घड़ी की सुई अटकी ढाई पर वो तीन नहीं होती
अगर गंगा में जाते पापी, पाप धोने
तो जो पाप करते ना, उनको क्या गंगा नसीब नहीं होती?
क्यूँ? यहाँ बे-ख़बर ही बे-ख़बर को जाने, वो भी डर से रहता दूर
मैं भागा अपने घर से, मेरा घर तो बन चुकी थी बस अब तू
बस देखूँ चारों तरफ़ ही हर जगह, बस मैं बोलूँ, "क्या ही खूब!" क्यूँ?
क्यूँकि दुनिया सारी नासमझ, ये दुनिया सारी नासमझ
ये दुनिया सारी नासमझ, ये दुनिया सारी नासमझ
ये दुनिया सारी नासमझ
ये दुनिया सारी नासमझ, ये दुनिया सारी नासमझ
मैं कोशिशें भी करी, तो भी कोई यहाँ पाता मुझको ना समझ
यहाँ नासमझ भी ना समझ के बोले सबको "नासमझ"
मैं भी आता दुनिया में, तो मैं भी ठहरा नासमझ
ये दुनिया लकीर जो मिटती चली जाती, जितना तुम उसे खींचते
वो सफ़र भी क्या सफ़र, जो वादा छोड़े ना मुसाफ़िर बीच में?
ख़ैर, ये दुनिया तो नासमझ, मैं सफ़र की शांति को पूरा सोख लिया
ख़ैर, तू ही तो दुनिया है मेरी, और हम एक ही हैं
तभी नासमझी में सफ़र अधूरा छोड़ दिया
Written by: Karan Kanchan, UDAY