Dari
PERFORMING ARTISTS
Asha Bhosle
Lead Vocals
COMPOSITION & LYRICS
Ravindra Jain
Composer
Sahir Ludhianvi
Songwriter
Lirik
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उस में, ये कहाँ सोचते हैं
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रूह क्या होती है, इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
रूह मर जाए तो हर जिस्म एक चलती हुई लाश
इस हक़ीक़त को समझते हैं, ना पहचानते हैं
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी हैं
कितनी सदियों से हैं कायम ये गुनाहों का रिवाज
लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़मा समझे
वो क़बीलों का ज़माना हो के शहरों का समाज
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
जब्र से नस्ल बढ़े, ज़ुल्म से तन मेल करे
ये अमल हम में हैं, बे-इल्म परिंदों में नहीं
हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं
हम सा वहशी कोई जंगल के दरिंदों में नहीं
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
एक मैं ही नहीं, क्या जाने ये कितनी होंगी
जिन को अब आईना तकने से झिझक आती हैं
जिन के ख़ाबों में ना सेहरे हैं, ना सिंदूर, ना सेज
राख ही राख हैं, जो ज़ेहन पे मंडलाती है
लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं
इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ कि "कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ?"
मैं ना ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँढूँ
और ना मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ
लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं
कौन बतलाएगा मुझ को? किसे जा कर पूछूँ?
"ज़िन्दगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक?
कब तलक आँख ना खोलेगा ज़माने का ज़मीर?
ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक?"
लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं
Written by: Ravindra Jain, Sahir Ludhianvi